रामचरितमानस में वसंत का उल्लेख, जानें वसंत पंचमी के रोचक तथ्य

Sanjay Gupta
By Sanjay Gupta Add a Comment 4 Min Read

दैनिक जनवार्ता नेटवर्क
संजय गुप्ता
नाहन (सिरमौर)। वसंत का रामचरितमानस में विशेष उल्लेख मिलता है। वसंत ऋतु नव उत्साह, नई उमंग, उल्लास, आकर्षण, प्रेम, आलिंगन, सृजन और कामनाओं की प्रतीक है। इसीलिए इसे ऋतुओं का राजा यानी ऋतुराज भी कहा गया है। तुलसीदास ने वसंत ऋतु में बहने वाली वायु को काम कृषानु बढ़ावन हारी कहा है। रामचरितमानस के तीन प्रसंगों नारद मोह में नारद जी की तपस्या भंग करने, कामारि, भगवान आशुतोष, देवाधिदेव महादेव, शंकर की समाधि को भंग करने, और मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम का पुष्पवाटिका में माँ सीता जी से सामना होते समय में ऋतुराज वसंत का वर्णन मिलता है। पहले और दूसरे प्रसंगों में मन्मथ, मनसिज और कामदेव (अर्थात् इच्छाओं का अधिपति) द्वारा असामयिक, अस्वाभाविक, अनियंत्रित रूप से निर्मित परिस्थितियों के संदर्भ में वसंत ऋतु का दुरुपयोग है। पहली स्थिति के परिणाम में काम पर विजय का भ्रम और बाद में विश्वमोहिनी से सामना होने पर कामासक्त होकर नारद की पराजय है। दूसरी घटना समाधिस्थ शंकरजी की समाधि नष्ट करने की देवताओं की स्वार्थ सिद्ध कामना की परिणति काम की मृत्यु, उसके भस्म होने से होती है। जबकि तीसरी स्थिति सीताजी के स्वयंवर के समय जनकपुर में पुष्पवाटिका में श्रीराम और सीताजी का आमना-सामना होने के समय वसंत ऋतु की छटा के रूप में होती है। वसंत मन की चंचलता को बढ़ाने वाली, अस्थिर और बेचैन करने वाली ऋतु है। यह कामनाओं को विस्तार देती है और उन्हें अनियंत्रित करती है। हम भारतवासी वसंत ऋतु के आगमन को वसंत पंचमी के दिन से मनाते हैं। इस दिन प्रज्ञा की देवी – सरस्वती, गायत्री, ऋतम्भरा की पूजा का महत्व है। इसे पंचमी के दिन से मनाने का एक विशेष प्रयोजन है। इसका उद्देश्य पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ और पाँच कर्मन्द्रियों को दर्शाना है, जो मन सहित काम का वासस्थान हैं। प्रज्ञा की देवी माँ सरस्वती व्यक्ति का विवेक है। सरस्वती की उपासना, उसकी आराधना इन्द्रियजयी बनाकर हमें विवेकशील बनाने में सहायक है।महाकवि कालिदास ने ऋतु संहार में वसंत का बड़ा ही सुन्दर चित्रण किया है। इसमें कवि ने काव्य का आरम्भ ग्रीष्म की प्रचण्डता से किया है और वसन्त की मादकता और सरसता को अन्त में स्थान दिया है। श्रीमद्भगवद्गीता में क्रोध की उत्पत्ति उसका विकास और विस्तार तथा परिणति को दो श्र्लोकों में सूत्र रूप में समाहित करते हुए भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं : ध्यायतो विषयान्पुंसः संगस्तेषूपजायते। संगात्संजायते कामः कामात्क्रोधोऽभिजायते क्रोधाद्‍भवति सम्मोहः सम्मोहात्स्मृतिविभ्रमः। स्मृतिभ्रंशाद् बुद्धिनाशो बुद्धिनाशात्प्रणश्यति॥ इसका भावार्थ है कि मन द्वारा विषयों का चिन्तन करने वाले मनुष्य की उन विषयों में आसक्ति पैदा हो जाती है। आसक्ति से कामना पैदा होती है और कामना से उन्हें पाने की इच्छा बलवती होती है। इच्छा (कामना) में विघ्न पड़ने से क्रोध पैदा होता है। क्रोध होने पर सम्मोह (मूढ़भाव) हो जाता है। सम्मोहन से स्मृति भ्रष्ट हो जाती है, परिणाम का बोध जाता रहता है। स्मृति भ्रष्ट होने पर बुद्धि का नाश हो जाता है। बुद्धि का नाश होने पर मनुष्य का पतन हो जाता है।

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